जिंदगी की धूप में भाप बनकर उड़ जाते हैं विचार: टूटे हुए पुल

               अनुराग श्रीवास्तव 


जीवनसंवाद: टूटे हुए पुल !
 अपने अहंकार को संभालना आसान नहीं । क्या रखा है इस दुनिया में ! अब मैं ऐसा नहीं करूंगा. आपका ध्यान केवल अच्छी-अच्छी बातों पर ही टिका रहता है. जो दुनिया से चला गया, उसकी सुखद स्मृतियों से खुद को जोड़ते रहते हैं ।
दयाशंकर मिश्र ।
बहुत कोमलता, धीमे स्वर, मधुरता से उन्होंने कहा, 'मैं बिना शर्त माफी मांगता हूं. क्षमा भी करता हूं. कैंसर से लड़ते हुए मुझे लगता है स्वयं को उन चीजों से मुक्त कर लिया जाए, जिनका मन पर गहरा बोझ है. जिंदगी में न तुम हमेशा गलत थे, न मैं हमेशा सही. बस, इसे स्वीकार करने में हमने ढेर सारा वक्त खर्च कर दिया.'
यह हिस्सा उस चिट्ठी का है, जिसे कैंसर से जूझते हुए व्यक्ति ने अपने मित्र को लिखा है. ‌कभी महसूस करिए कि हम जिंदगी में आगे बढ़ते हुए कितना कुछ पीछे छोड़ते जाते हैं. रिश्तों के पुल तोड़ते जाते हैं. नए पुल बनाने की शर्त पुराने तोड़ना नहीं होनी चाहिए!



हम जब ऐसे मोड़ पर होते हैं, जहां जीवन पर संकट होता है, वहां हमारी विचार प्रक्रिया पूरी तरह बदल जाती है. हम सोचने लगते हैं, जिंदगी को हमने किन बेकार की चीजों में खपा रखा है. कहां उलझ गए हम. दिलचस्प बात यह है कि जैसे ही संकट खत्म होता है, हम यह सब भूल कर पुरानी चीजों को ही दोहराने लगते हैं.
इसे एक अनुभव की कसौटी पर परखिए. जब कभी आप किसी असाध्य रोगी से मिलते हैं, आपके मन में कैसे विचार आते हैं? जब आप किसी अंतिम यात्रा का हिस्सा होते हैं. आपके अंतर्मन में क्या चल रहा होता है! मन के भीतर कहीं ना कहीं यह प्रश्न जरूर आता है, हम कैसी बेकार की बातों में उलझे हुए हैं.


 श्मशान, अंतिम यात्रा में जो विचार आते हैं, काश! हमारे मन नहीं कुछ दिन टिक पाते. यह इतने क्षणिक होते हैं कि जिंदगी की धूप पड़ते ही 'भाप' बनकर उड़ जाते हैं.
संवाद के टूटे पुल असल में आहत भावना, अहंकार, अपने में सिमट जाने का परिणाम होते हैं. दो लोगों के बीच दूरी के कारण कई बार इतने अवास्तविक होते हैं कि उन पर विश्वास करना ही संभव नहीं होता. हम मन में कल्पना करते हैं. धीरे-धीरे कल्पना पर विश्वास करते जाते हैं. कुछ समय बाद वैसी ही दुनिया रच लेते हैं ।
भारतीय समाज की विडंबना देखिए कि वह मामूली से बुखार के लिए भी डॉक्टरों के दरवाजे पर दस्तक देता रहता है, लेकिन मन की गंभीर सिलवट, उलझन, संकट की ओर उसका ध्यान नहीं जाता । जबकि इसे समझने के लिए, बहुत साधारण मानवीय चेतना की जरूरत होती है ।
संवाद के टूटे पुल, कमजोर और बीमार मनुष्य की रचना करते हैं. ऐसे लोगों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है. अचानक आपको खबर मिलती है किसी परिचित ने जीवन के प्रति 'अप्रिय' कदम उठा लिया. आप मन में कहते हैं, अरे उसने यह कैसे कर लिया! लेकिन इस दौरान हम भूल जाते हैं कि हम उससे कितने जुड़े थे. कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे हम उससे जुड़ कर भी नहीं जुड़े थे, वैसे ही लोग उसके पास अधिक इकट्ठे होते गए!
इसे ही कहते हैं, भीड़ में अकेले होना! इसलिए, अपनों से जुड़िए. छोटे-मोटे मनमुटाव छोड़िए. संवाद बढ़ाइए. जीवन को स्नेह, आत्मीयता, प्रेम दीजिए ।
पता : दयाशंकर मिश्र (जीवन संवाद)


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