इमरजेन्सी का क्रूर फैसला
फरवरी 2020 में मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार ने पुरुष नसबंदी को लेकर कर्मचारियों को टारगेट दिया और उस टारगेट को पूरा न कर पाने पर अनिवार्य सेवानिवृति और वेतन रोकने को लेकर सर्कुलर जारी किया गया है। नोटिफ़िकेशन में मध्य प्रदेश में काम करने वाले पुरुष मल्टी परपज़ हेल्थ वर्कर्स के संदर्भ में ये निर्देश दिए गए थे। क्या थे वो 5 सूत्री निर्देश पहले वो जान लीजिए।
सभी कर्मियों द्वारा नसबंदी के इच्छुक कम से कम 5 से 10 पुरुषों को सेवा केंद्रों पर इकट्ठा किया जाए।
ऐसे कर्मियों की पहचान की जाए, जो 2019-20 में एक भी पात्र पुरुष को नसबंदी केंद्र पर नहीं लाए।
इनका ज़ीरो वर्क आउटपुट देखते हुए 'नो वर्क नो पे' (No Work No Pay) के आधार पर इनकी सैलेरी तब तक रोकी जाए, जब तक ये कम से कम एक पात्र पुरुष को केंद्र पर न लाएं।
मार्च 2020 तक एक भी पुरुष को नसबंदी केंद्र पर न लाने वाले कर्मियों को रिटायर कर दिया जाए।
परिवार नियोजन कार्यक्रम में पुरुष नसबंदी की समीक्षा की जाए और पुरुष भागीदारी को बढ़ावा देते हुए ऐक्शन लिया जाए।
हालांकि सर्कुलर के दो घंटे बाद ही मध्य प्रदेश सरकार की ओर से यह आदेश वापस ले लिया गया। कांग्रेस सरकार के इस फैसले ने कमलनाथ के दोस्त संजय गांधी के फैसले की याद दिला दी और कहा जाने लगा कि कमलनाथ अपने मित्र की राह पर चलने की सोचने लगे। ऐसे में आज हम आपातकाल के सबसे क्रर फैसले की बात करेंगे जब डेढ़ करोड़ लोगों की नसबंदी करा दी। साथ ही आपको बताएंगे कि सबसे पहले नसबंदी का कासेप्ट भारत में कहां लागू हुआ था।
संजय गांधी, इंदिरा गांधी के छोटे बेटे और सत्तर के दशक में गांधी परिवार के राजनीतिक वारिश। उनका झलवा ऐसा था कि प्रधानमंत्री तो इंदिरा गांधी थी लेकिन फैसले संजय गांधी लेते थे। कहा जाता है कि उस दौर में देश प्रधानमंत्री कार्यलय से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री आवास से चलता था, जहां संजय गांधी रहते थे। आज हम इमरजेंसी के सबसे काले अध्याय की बात करेंगे। जिसकी सबसे ज्यादा आलोचना हुई। इमरजेंसी के दौरान सबसे कुख्यात फैसला रहा परिवार नियोजन के कार्यक्रम को सख्ती से लागू करना। हालांकि ये फैसला इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के 20 सूत्रिए कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि इस फैसले को संजय गांधी के विशेष 5 सूत्रिए फैसले के तहत लागू किया गया था। इसके अधिकारिक आंकड़े तो नहीं हैं कि इमरजेंसी के दौरान कितने लोगों की नसबंदी करवाई गई। लेकिन इस मुद्दे पर आस्ट्रेलिया की एक प्रोफेसर मैरिका विरजियानी की किताब में ये कहा गया कि 25 जून 1975 से मार्च 1977 तक भारत में करीब 1 करोड़ 10 लाख पुरूषों और करीब 10 लाख महिलाओं की नसबंदी करवाई गई। संजय गांधी ने इस कार्यक्रम का प्रयोग सबसे पहले दिल्ली में किया था। जहां इसकी जिम्मेदारी दिल्ली के त्तकालीन उपराज्यपाल किष्ण चंद, उनके सचिव नवीन चावला को मिली। नवीन चावला बाद में यूपीए सरकार के दौरान मुख्य निर्वाचन आयुक्त भी रहे। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उस वक्त की एनडीएमसी की अध्यक्ष विद्याबेन शाह के अलावा संजय गांधी की करीबी रही रुकसाना सुल्ताना को भी इस काम के लिए चुना गया।
उस वक्त 31 वर्ष की रुकसाना सुल्ताना को संजय गांधी का राउट हैंड कहा जाता था। रुकसाना की एक पहचान ये भी है कि वो अभिनेत्री अमृता सिंह की मां और सारा अली खान की नानी हैं। सुल्ताना ने दिल्ली में जामा मस्जिद के आसपास संवेदनशील मुस्लिम इलाकों में एक साल में करीब 13 हजार नसबंदियां करवाईं। जगह-जगह पर कैंप लगाए गए। नसबंदी कराने वाले लोगों को 75 रूपए, काम से एक दिन की छुट्टी और एक डब्बा घी दिया जाता था। कहीं-कहीं पर सायकिल भी दी जाती थी। सफाई कर्माचारियों, रिक्शा चलाने वालों और मजदूर वर्ग के लोगों का जबरदस्ती नसबंदी करवाया गया। अप्रैल 1976 में दिल्ली में सभी सरकारी दफ्तरों, स्कूल, कालेज और प्रशासनिक दफ्तरों में एक सर्कुलर भेजा गया और कहा गया कि जिनके दो से ज्यादा बच्चें हैं सभी को नसबंदी करवानी पड़ेगी। अध्यापकों और सरकारी कर्मचारियों को एक टारगेट दे दिया गया था कि एक निर्धारित संख्या के लोगों को कैंप में लेकर आना ही है। यहां तक की नसबंदी के सर्टिफिकेट नहीं दिखाने पर ड्राइविंग लाइसेंस का रिन्यूअल रोक दिया जाता था। इसके अलावा अस्पताल में मुफ्त मेडिकल ट्रिटमेंट से भी इंकार कर दिया जाता था। 24 जून 2014 को अमेरिका के एक रिसर्च ग्रुप पापुलेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नसबंदी की टैक्सटिस हर राज्य में अलग-अलग होती थी।