वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने में आखिर क्या है बाधा @ कोविड-19
कोरोना वायरस वैक्सीन का सबसे अधिक उत्पादन करने वाले देशों में से भारत एक है। इसके सबसे बड़े निर्माता का कहना है कि ब्रिटेन को हो रही कोरोना वैक्सीन की आपूर्ति में अगले महीने ख़ासी कमी आ सकती है और साथ ही नेपाल को की जाने वाली एक बड़ी आपूर्ति को भी रोकना पड़ा है। लोग सोशल मीडिया से ज्यादा कोविन ऐप चेक करने लगे हैं लोग। ऐप पर ही टीका लगवाने का स्लॉट मिलता है। जर्मनी में भी लोग वैक्सीन के लिए इसी तरह बेताब हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि टीका लगवाने की कतार कब छोटी होगी। जवाब है, जितना वक्त वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने में लगेगा। पिछले कुछ दिनों में कई लोगों ने सुझाव दिया कि वैक्सीन बना रही कंपनियों से टेक्नॉलजी लेकर उसे दूसरी फार्मा कंपनियों को भी दे दिया जाए। इससे उत्पादन बढ़ाने में सहूलियत होगी। लेकिन, टीके की सप्लाई और प्रॉडक्शन बढ़ाना इतना भी आसान नहीं।
विशेषज्ञों के मुताबिक, वैक्सीन बनाना दवा बनाने के मुकाबले कहीं ज्यादा मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि जिस कंपनी के हाथ फॉर्मूला लग गया, वह झट से टीका बना लेगी। अगर केवल फॉर्मूले की बाधा होती, तो हमारे पास मॉडर्ना की mRNA वैक्सीन की भरमार होती। मॉडर्ना की वैक्सीन पर पेटेंट की बाध्यता नहीं है यानी कोई भी इसकी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल करके टीका बना सकता है। इसके बावजूद अभी तक मॉडर्ना के टीके की एक भी जेनेरिक कॉपी नहीं बनी। अमेरिकी FDA के एक पूर्व अधिकारी का कहना है, 'फिलहाल हमारे पास कोई जेनेरिक वैक्सीन नहीं है क्योंकि इसे बनाने में कई अड़चनें हैं। वैक्सीन मैन्युफैक्चरिंग में सैकड़ों चरण होते हैं। क्वॉलिटी टेस्ट करने के लिए हजारों बार चेकिंग होती है। अधिकतर कंपनियां इन झंझटों से बचना चाहती हैं। 'छोटी और मझोली कंपनियों की बात छोड़िए, दिग्गजों को भी वैक्सीन का उत्पादन शुरू करने में काफी मुश्किल हुई। द इकनॉमिस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एस्ट्राजेनेका ने ऑक्सफर्ड की वैक्सीन टेक्नॉलजी को अपनी एक साइट पर ट्रांसफर किया और इसमें पूरे सात महीने लगे। नोवावैक्स ने भी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को अपनी वैक्सीन टेक्नॉलजी देने में तकरीबन साल भर का समय लिया, जबकि सीरम के पास टीका बनाने का अच्छा-खासा अनुभव है। फाइजर की जर्मन वैक्सीन पार्टनर बायोएनटेक ने पिछले साल सितंबर में नोवार्टिस से वैक्सीन बनाने की एक फैक्ट्री ली, फिर भी उसे प्रॉडक्शन शुरू करने में करीब 6 महीने लग गए। वह सिंगापुर में भी एक फैक्ट्री लगा रही है, जो 2023 से पहले तैयार नहीं होगी।वैक्सीन के 30 लाख डोज बनाने के लिए 100 मशीनें करीब 30 घंटे का वक्त लेती हैं। 10 लाख डोज को वायल में भरने में दो दिन और लग जाते हैं। लेकिन, वायल को तुरंत नहीं भेजा जाता। उनकी क्वॉलिटी चेक करने में भी एक पखवाड़ा लग जाता है।
इन सब परेशानियों के अलावा वैक्सीन के लिए कच्चे माल की भी दिक्कत है। पिछले महीने सीरम इंस्टीट्यूट के चीफ अदार पूनावाला ने ट्विटर पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से गुजारिश की थी कि वह कच्चे माल के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा लें, ताकि वैक्सीन प्रॉडक्शन की रफ्तार बढ़ाई जा सके। इस साल की शुरुआत से ही बायो-रिएक्टर बैग्स, लिपिड और फिल्टर जैसे रॉ मैटेरियल्स की किल्लत रही है। फाइजर की वैक्सीन के लिए 19 देशों के सप्लायर्स से 280 इनपुट्स की जरूरत पड़ती है। तो इन सभी चीजों पर गौर करने से अंदाजा लग रहा है कि टीके की किल्लत कुछ महीनों तक बनी रहेगी। मॉडर्ना के चीफ स्टेफान बैंसेल भी कहते हैं कि इस साल कंपनियां उतना ही उत्पादन कर पाएंगी, जितने की उन्होंने योजना बनाई थी।
उम्मीद है कि अगला साल बेहतर होगा। ग्लोबल वैक्सीन सप्लाई पहले ही तीन गुना बढ़ गई है। द इकनॉमिस्ट के अनुसार, इस साल के आखिर तक 11 अरब डोज डिलीवर हो जाएंगे और 2022 में ग्लोबल लेवल पर सरप्लस रहेगा। इनमें से अधिकतर खुराकें mRNA वैक्सीनों की रहेंगी, जो ज्यादा असरदार भी मानी जा रही हैं। मॉडर्ना अगले साल 3 अरब खुराकें बनाएगी, जो मौजूदा वर्ष के मुकाबले कम से कम 80 करोड़ ज्यादा होगी। फाइजर ने शुरुआत में 1 अरब 30 करोड़ डोज बनाने की योजना बनाई थी, लेकिन साल खत्म होने तक ढाई से तीन अरब तक बना सकती है। बायोएनटेक का फोसुन फार्मास्युटिकल्स के साथ जॉइंट वेंचर चीन में हर साल mRNA टीकों की 1 अरब डोज बनाएगा। इसकी सिंगापुर यूनिट भी 2023 तक टीका बनाना शुरू कर देगी। उत्पादन की रफ्तार बढ़ने के साथ टीका सबके लिए सुलभ हो जाएगा। वैक्सीन के उत्पादन में भारत ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है और पूरी दुनिया में भारत के प्रयासों की सराहना भी हो रही है।➖ ➖ ➖ ➖ ➖
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