देश की पहली महिला शहीद स्वतंत्रता सेनानी अवंती बाई : आजादी का अमृत महोत्सव

 

                !!  देश का आज़ादी के 75 वर्ष  !! 

"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में देश के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाली वीर वीरांगनाओं की वीर गाथा भारत की पवित्र भूमि पर गूँजती है और उनका शौर्यपूर्ण जीवन प्रत्येक भारतीय के जीवन को मार्गदर्शित करता है। प्रस्तुत है आज देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की "पहली महिला शहीद" की कहानी। जिन्होंने अँग्रेजों के विरूद्ध ऐतिहासिक युद्ध किया जो भारत की आज़ादी में बहुत बड़ा योगदान है।  प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव

21 - "रानी अवंतीबाई लोधी" - रामगढ की रानी अवंतीबाई पूरे भारत में "अमर शहीद वीरांगना रानी अवंतीबाई" के नाम से विख़्यात हैं। रेवांचल में "मुक्ति आन्दोलन" की सूत्रधार थीं। वे जीतेजी अँग्रेजों के हाथ नहीं आयीं और मरते मरते हजारों लोगों को फाँसी और अँग्रेजों के अमानवीय व्यवहार से बचा लिया था। लोधी समाज की महावीरांगना रामगढ की रानी अवंतीबाई झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई की ही तरह अपने पति के अस्वस्थ होने पर अपने राज्य का कार्यभार सँभालकर अपनी सुयोग्यता का परिचय दिया था। इनका जन्म मध्य प्रदेश में ग्राम मनकेहणी जनपद सिवनी के जमींदार राव जुझार सिंह के घर में 16अगस्त 1831 को हुआ था। जो पिछड़े वर्ग के लोधी राजपूत समुदाय से थे। इनकी शिक्षा मनकेहड़ी गाँव में ही हुई थी। बचपन में ही तलवारबाजी और घुड़सवारी करना सीख लिया था। लोग बाल कन्या के रूप में इनकी तलवारबाजी और घुड़सवारी देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे।

 वे बचपन से ही बड़ी वीर व साहसी थीं। जैसे जैसे वे बड़ी होती गयीं वैसे वैसे उनकी वीरता की कहानी आस पास के इलाकों में फैलने लगी। पिता - राव जुझार सिंह ने इनका विवाह सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ रियासत जनपद - मंडेला के राजा लक्ष्मण सिंह जी के पुत्र - राजकुमार विक्रमादित्य सिंह से कर दिया! यह साहसी कन्या रामगढ रियासत की कुलवधू बन गयीं! इन्हें दो पुत्र रत्न हुये जिनका नाम अमन सिंह और शेर सिंह था! 1817 से 1850 तक रामगढ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह जी थे! 1850 में राजा लक्ष्मण सिंह जी की मृत्यु हो गयी तो राजकुमार विक्रमादित्य सिंह जी का रामगढ रियासत के राजा के रूप में राजतिलक किया गया! राजा विक्रमादित्य सिंह जी बचपन से ही वीतरागी प्रवृति के थे पूजा पाठ धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे राज्य संचालन का काम रानी ही चलाती थीं! 1855 में एक दुर्घटना में राजा विक्रमादित्य जी की मृत्यु हो गयी राजा के दोनों पुत्र छोटे थे इसलिये राज्य का सारा भार रानी अवंतीबाई के कंधों पर आ गया! रानी ने पूरी जिम्मेदारी के साथ राज्य का कार्यभार सँभालकर अपने राज्य की स्वतन्त्रता और संप्रभुता को कायम रखा! उस समय तक ब्रिटिश शासन भारत के अनेक भागों में अपने पैर जमा लिया था! उस समय भारत में लार्ड डलहौजी ब्रिटिश शासन का गवर्नर जनरल था प्रशासन चलाने का तरीका साम्राज्यवाद से प्रेरित था उसके कार्यकाल में राज्य विस्तार का काम अपने चरम पर था! भारत में डलहौजी की साम्राज्यवाद की नीतियों और उसकी हड़प नीति की वजह से देश की रियासतों में हल्ला मचा हुआ था! उसकी राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत जिस रियासत का कोई स्वाभाविक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था ब्रिटिश सरकार उसे अपने अधीन कर ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर देती थी इसके अलावा इस हड़प नीति के अन्तर्गत डलहौजी ने यह भी निर्णय लिया कि जिन भारतीय शासकों के राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन हैं और उन शासकों से यदि कोई पुत्र नहीं है तो वे बिना अँग्रेजी हुकूमत की अनुमति के किसी बच्चे को गोद नहीं ले सकते थे। अपनी राज्य हड़प नीति के तहत लार्ड डलहौजी कानपुर, झाँसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, संबलपुर, उदयपुर, करौली इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था अब उसकी नज़र रामगढ रियासत पर थी।

रामगढ रियासत की राजनीतिक स्थिति का जैसे ही उसे समाचार मिला अँग्रेजी सरकार ने रानी अवंतीबाई के नाबालिग पुत्रों को रियासत का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और रामगढ रियासत को "कोर्ट ऑफ वार्ड्स" के अधीन कर वहाँ अपना शासक नियुक्त कर दिया और राज परिवार को पेंशन दे दी। इस बात की जानकारी होने पर रानी बहुत दु:खी हुई लेकिन इस अपमान का घूँट पीकर रह गयी और उचित अवसर का तलाश करने लगी। अँग्रेजों की इस हड़प नीति को रानी जानती थीं उन्होंने अपने राज्य के लोगों को अँग्रेजी सरकार के निर्देशों को न मानने के लिये आदेश दिया जिससे अँग्रेजी सरकार तिलमिला गयी। सन् 1857 में जब देश में स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा तो क्रान्तिकारियों का संदेश रामगढ भी पहुँचाा। रानी अँग्रेजों से पहले से ही नाराज थी क्योंकि उनकी रियासत भी झाँसी व अन्य रियासतों की तरह अँग्रेजों ने "कोर्ट ऑफ लार्ड्स" के अधीन कर लिया था। अँग्रेजी रेजीमन्ट उनकी समस्त कार्यों पर निगाह रखी हुई थी। रानी अवंतीबाई ने अपनी ओर से क्रान्ति का संदेश देने के लिये अपने आस पास के सभी राजाओं और प्रमुख जमींदारों को चिट्ठी के साथ काँच की चूड़ियाँ भिजवायी थी। इस चिट्ठी में लिखा था कि "देश की रक्षा के लिये या तो कमर कसकर अँग्रेजी शासन से लड़ाई करो या चूड़ी पहनकर घर में बैठो।" आप सभी को धर्म और ईमान की सौगन्ध है जो इस कागज का सही पता बैरी को दो। सभी देशभक्त राजाओं और जमींदारों ने रानी अवंतीबाई के साहस और शौर्य की बड़ी सराहना की और उनकी योजनानुसार अँग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। जगह जगह गुप्त सभायें कर देश में सर्वत्र क्रान्ति की ज्वाला फैला दी। इस बीच कुछ विश्वासघाती लोगों की वजह से रानी के प्रमुख सहयोगी नेताओं को अँग्रेजों ने मृत्युदण्ड दे दिया जिससे रानी अत्यन्त दु:खी हुईं। अँग्रेजी शासन के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और अपने राज्य से "कोर्ट ऑफ वार्ड्स" के अधिकारियों को राज्य से बाहर भगा दिया तथा राज्य एवम् क्रान्ति की बागडोर अपने हाथों में ले ली। ऐसे में वीरांगना महारानी अवंतीबाई मध्य भारत के क्रान्ति की प्रमुख नेता के रूप में उभरींं। महारानी के विद्रोह की ख़बर जब जबलपुर के कमिश्नर को दी गयी तो वह आगबबूला हो उठा। उसने रानी को आदेश दिया कि वे मंडला के डिप्टी कलेक्टर से भेंट कर लें। रानी ने अँग्रेज पदाधिकारियों से मिलने की बजाय युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने रामगढ किले की मरम्मत कराकर मजबूत व सुदृढ बनाया। मध्य भारत के विद्रोही नेता रानी के नेतृत्व में एकजुट होने लगे इस एकजुटता विद्रोह की ख़बर से अँग्रेज चिंतित हो उठे। वीरांगना रानी अवंतीबाई ने छापामार युद्ध का सहारा लेकर अपने सहयोगियों के साथ घुघरी, रामनगर व बिछिया आदि क्षेत्रों पर हमला बोल दिया और वहाँ से अँग्रेजी सेना का सफाया कर दिया इसके बाद मंडला पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। इस युद्ध में रानी और अँग्रेजों की सेना में घमासान युद्ध हुआ। रानी और मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन आमने सामने थे। इनके बीच सीधा युद्ध हुआ जिसमें वाडिंगटन का घोड़ा बुरी तरह से घायल हो गया। घोड़ा गिरने ही वाला था कि वाडिंगटन घोड़े से कूद पड़ा तब रानी ने अपने घोड़े को तेज दौड़ाते हुये वाडिंगटन पर टूट पड़ी। लेकिन बीच में एक सिपाही तलवार लिये कूद पड़ा और रानी के वार को रोककर वाडिंगटन की जान बचा ली। मंडला डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन भयभीत होकर मैदान छोड़कर भाग चुका था।
मैदान रानी के नाम रहा और मंडला भी रानी के अधिकार में आ गया। कई महीनों तक रानी ने मंडला पर शासन किया! उधर मंडला डिप्टी कमिश्नर रानी से अपने अपमान का बदला लेने को आतुर था। हर हाल में अपनी पराजय का बदला चुकाना चाहता था इसके बाद वाडिंगटन ने अपनी सेना को पुनर्गठित किया और रामगढ किले पर हमला बोल दिया जिसमें रीवा नरेश की सेना भी अँग्रेजों का साथ दे रही थी! रानी की सेना कम थी। लेकिन फिर भी रानी के नेतृत्व में जमकर मुकाबला किया लेकिन ब्रिटिश सेना संख्या बल और युद्ध सामग्री की तुलना में रानी की सेना से कई गुना बलशाली थी। अत: स्थिति को भाँपकर रानी अवंतीबाई किले के बाहर निकलकर डिंडोरी के पास देवहारगढ की पहाड़ियों की तरफ प्रस्थान किया। रानी के किला छोड़ देने के बाद अँग्रेजी सेना ने किले को ध्वस्त कर दिया और जमकर लूटपाट की। इसके बाद अँग्रेजी सेना रानी का पता लगाते हुये देवहारगढ की पहाड़ियों के निकट पहुँच गयी जहाँ रानी ने पहले से ही अपनी सेना के साथ मोर्चा जमा रखा था। अँग्रेजों ने रानी को आत्मसमर्पण के लिये संदेश भिजवाया लेकिन रानी ने संदेश को अस्वीकार करते हुये संदेश भिजवाया कि लड़ते लड़ते बेशक मरना पड़े लेकिन अँग्रेजों के भार से दबूँगी नहीं। इसके बाद वाशिंगटन की सेना ने चारो तरफ से रानी की सेना पर धावा बोल दिया। कई दिनों तक रानी की सेना और अँग्रेजी सेना के बीच घमासान युद्ध चलता रहा रीवा नरेश की सेना भी अँग्रेजों का साथ देती रही। रानी की सेना बेशक कम थी पर अँग्रेजी सेना का डटकर सामना किया। इस युद्ध में रानी के कई सैनिक हताहत हुये तथा रानी को भी बायें हाथ में गोली लगी और बंदूक छूटकर हाथ से गिर गया। अपनेआप को चारों तरफ से घिरता देख रानी अवंतीबाई ने रानी दुर्गावती का अनुकरण करते हुये अपने अंगरक्षक से तलवार छीनकर स्वयं को तलवार भोंककर 20 मार्च 1858 को देश के लिये बलिदान दे दिया और भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया। रानी अवंतीबाई जब मृत्यु शैय्या पर थीं तब अँग्रेजों को बयान दिया कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को विद्रोह के लिये मैंने ही उकसाया और भड़काया था। प्रजा बिल्कुल निर्दोष है। इस प्रकार वीरांगना रानी अवंतीबाई ने हजारों लोगों को फाँसी और अँग्रेजों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं से बचा लिया। इसके बाद उस क्षेत्र के आन्दोलन को दबा दिया गया और रामगढ भी अँग्रेजों के अधीन हो गया।

डिन्डोरी जिले के शाहपुर कस्बे के नजदीक ग्राम बालपुर में वीरांगना अवंतीबाई ने लड़ते लड़ते अपने सीने में खंजर उतारा था। इस स्थान को "बलिदान स्थल" के रूप में सुरक्षित किया गया है। प्रतिवर्ष वीरांगना रानी अवंतीबाई का "बलिदान दिवस" मनाया जाता है। बालपुर से रानी को घायलावस्था में उनके सैनिक रामगढ ले जा रहै थे तभी सूखी तलैया नामक स्थान पर रानी अवंतीबाई का स्वर्गवास हो गया था। सूखी तलैया नामक स्थान बालपुर और रामगढ के बीच पड़ता है। रानी के वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद उनके पार्थिव शरीर को रामगढ लाया गया था। रामगढ में रानी अवंतीबाई की समाधि बनायी गयी। रानी अवंतीबाई की याद में जबलपुर में पवित्र नर्मदा नदी पर बने "बरगी डेम" का नाम रानी अवंतीबाई के नाम पर रखा गया। इसी डेम में रानी अवंतीबाई का जन्म स्थान ग्राम- मनकेहड़ी इस क्षेत्र में आ गया है। देश की आज़ादी के लिये स्वाधीनता संग्राम सेनानियों इन महान वीरांगनाओं के महत्वपूर्ण योगदान इनकी राष्ट्रभक्ति पूर्ण जोश व उत्साह का ही परिणाम है कि आज हम आज़ाद भारत का आनन्द ले रहे हैं। राष्ट्र के प्रति इन सेनानियो वीरांगनाओं के प्रयासों और बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

 आइये हम सभी इन्हें प्रणाम करें! इनसे प्रेरणा लें! इस अमर बलिदानी भारत की पहली महिला महावीरांगना शहीद महारानी अवंतीबाई जी को सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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