आशाओं को डब्ल्यूएचओ से मिला सम्मान, पर खस्ता हालत पर किसी का ध्यान नहीं : संरक्षक वीरेन्द्र यादव ने जताई चिंता
(रीतेश श्रीवास्तव)
संतकबीरनगर। आशा कार्यकर्ताओं को विश्व स्तर पर सम्मानित किये जाने और सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इनकी प्रशंसा किये जाने से सभी गदगद हैं। परन्तु इनकी दुश्वारियों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। ये स्वयं भी मातृ शक्ति हैं और मातृ शक्ति की ही सेवाओं के अथक परिश्रम और संघर्ष करती हैं। इस सबके बावजूद इन्हें आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। चार चार, पांच पांच महीने से इनके मानदेय का पता लता नहीं है। आशाओं की जिंदगी खुशहाल और डिजिटल बनाने के लिए सुधार के नाम पर बजट का संकट खड़ा कर दिया गया है। केवल सम्मान और भाषणों से पेट नहीं भरने वाला। इन्हें नियमित भुगतान मिले और जीवन स्तर को सुदृढ़ बनाने के व्यावहारिक तौर पर कार्य योजना तैयार कर उसे धरातल पर उतारे जाने की आवश्यकता है।
तारकेश्वर टाईम्स से बातचीत में आशा कर्मचारी यूनियन संतकबीरनगर के जिला संरक्षक वीरेन्द्र यादव ने उक्त विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आशा कार्यकर्ताओं के कार्यों को जमकर सराहा खुशी हुई, ग्लोबल स्तर पर सम्मानित किया संतुष्टि मिली, पर यह सम्मान ऐसे ही आशा को नहीं मिला है। इसके पीछे आशा की तपस्या भी है। जाड़ा, गर्मी और बरसात के मौसम में बिना अपने सुरक्षा और सेहत की चिन्ता किए 24 घण्टे सातों दिन लोगों की सेहत सुधारने में योगदान देती रहीं। ऐसे में जब आशा को सम्मान मिला तो मन प्रफुल्लित हो गया। खुशी हुई कि किसी ने तो आशा के कार्यों, उसके बलिदान और बंधुआ मजदूर जैसी दशा के बीच उसके मन की पीड़ा को समझा। यह न सिर्फ सभी आशा और आशा संगिनी के लिए गौरवशाली क्षड़ है, बल्कि सरकार और अधिकारी भी गदगद है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर अपने लोग आशा के जीवन स्तर में सुधार के लिए कब जागेंगे ? आशा की ड्यू लिस्ट और उसके ही आंकड़े पर एएनएम से लेकर मिशन निदेशक और सरकार तक रिपोर्टिंग होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सम्मानित किये जाने के साथ साथ आशाओं की खस्ता हालत को सुधारने के लिए कोशिशें करना जरुरी है। (वीरेन्द्र यादव - संरक्षक आशा कर्मचारी यूनियन संतकबीरनगर)जिला संरक्षक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि आशाओं के कार्यों पर ही अधिकारियों को शाबाशी मिलती है। सब कुछ बेहतर हो जाता है, लेकिन आशा की पीड़ा पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिलों के सभी ब्लाकों में चार से पांच माह का आशा और आशा संगिनी का भुगतान नहीं हुआ है। बच्चों की फीस जमा नहीं हो पा रही है। आर्थिक स्थिति बिगड़ गई है। लेकिन आशा की जिंदगी खुशहाल बनाने के लिए, डिजिटल बनाने के लिए सुधार के नाम पर बजट का संकट खड़ा कर दिया गया है। आखिर आशा जाएं तो जाएं कहां ? अभियान भी चल रहे हैं, इसके बाद भी आशा पूरी निष्ठाऔर ईमानदारी से काम कर रही है। आशा की जगह खुद को रखकर सरकार और अधिकारी सोचे तो शायद विश्व स्तर से मिले सम्मान का कोई अर्थ है। अन्यथा भाषण और सम्मान से पेट नहीं भर सकता है।
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