कोमल बालक मरे यहां हैं गोली खाकर, कलियां उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर : सुभद्रा कुमारी चौहान - आजादी का अमृत महोत्सव

 

              !! देश की आज़ादी के 75 वर्ष !!

 "आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज मैं एक ऐसी वीरांगना की बात कर रही हूँ जो राष्ट्रपिता महात्मा गांँधी जी के "असहयोग आन्दोलन" में भाग लेने वाली प्रथम महिला स्वतन्त्रता सेनानी थीं। 18वर्ष की उम्र में जेल जाने वाली पहली महिला सत्याग्रही और देश की महान सुप्रसिद्ध लेखिका कवियित्री कहानीकार थीं। "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी" ये पंक्तियाँ जिनसे हर भारतीय परिचित है। हम सभी ने अपने छात्र जीवन में इन पंक्तियों को अनेकों बार सुनी पढ़ी और बोली हैं। उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के बारे में लिखा ही नहीं बल्कि उनके साहस और उनकी अवग्या को मूर्त रूप देने का प्रयास किया। उन्होंने झाँसी की रानी की आत्मा को अमर कर दिया। इसी कविता से उन्हें प्रसिद्धि मिली और वह साहित्य जगत में अमर हो गयीं।                                                 प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव 

23 - "सुभद्रा कुमारी चौहान" - देश की पहली महिला सत्याग्रही, देश सेविका और महान देशभक्त लेखिका का जन्म - नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट ग्राम - निहालपुर में एक जमींदार परिवार में 16 अगस्त 1904 को हुआ था। इनके पिता का नाम - ठाकुर रामनाथ सिंह था। पिता शिक्षा प्रेमी होने के कारण बेटी की पढ़ाई को लेकर जागरूक थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पिता की देखरेख में हुई। सुभद्रा कुमारी चौहान बचपन से ही चंचल व कुशाग्र बुद्धि की थीं। वे पढ़ाई में अव्वल थीं। हमेशा प्रथम आने पर उन्हें इनाम मिलता था।

उन्हें बचपन से ही कविता लिखने का शौक था। मात्र नौ वर्ष की उम्र में ही उनकी पहली कविता छपी जिसे उन्होंने एक नीम के पेड़ के ऊपर लिख दिया। वह बहुत जल्दी कविता लिखती थीं। स्कूल से आते जाते तांगे में ही कविता लिख डालती थीं। मानों उन्हें कोई प्रयास ही नहीं करना पड़ा। मात्र 15 वर्ष की उम्र में इनका विवाह 1919 में खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ हुआ। जबलपुर से माखनलाल चतुर्वेदी जी "कर्मवीर" पत्रिका निकालते थे। उसमें उनके पति की नौकरी लग गयी और वे अपने पति के साथ जबलपुर चली गयीं। उनके पति एक नाटककार थे, और अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के सदस्य थे। सन् 1920 - 21 में उन्होंने अपने पति के साथ नागपुर अधिवेशन में भाग लिया और घर घर कांग्रेस का संदेश पहुँचाया। पति लक्ष्मण सिंह ने अपनी पत्नी की प्रतिभा को आगे बढ़ाने में सदैव उनका सहयोग किया। उनके जैसा जीवनसाथी माखनलाल चतुर्वेदी जी जैसा पथ प्रदर्शक पाकर वह स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन में बराबर सक्रिय भागीदारी करने लगीं। जब महात्मा गाँधी जी समूचे देश में अपने असहयोग आन्दोलन को लेकर आह्वान कर रहे थे। तब 1921 में सुभद्रा कुमारी चौहान ने महात्मा गाँधी जी के "असहयोग आन्दोलन" में भाग लीं और असहयोग आन्दोलन में भाग लेने वाली प्रथम महिला बनी। सुभद्रा कुमारी चौहान जी के सहज स्नेही निश्छल स्वभाव का जादू सभी पर चलता था। उनका जीवन प्रेम से युक्त था और निरन्तर निर्मल प्यार बाँटकर भी खाली नहीं होता था। परन्तु उनकी सादगी व सादा वेशभूषा देख महात्मा गाँधी जी (बापू) ने पूछ ही लिया था कि - बेन तुम्हारा ब्याह हुआ है ? उन्होंने उत्साह से बताया कि हाँ और मेरे पति हमारे साथ आये हैं। यह सुन "बा" और "बापू" जहाँ आश्वस्त हुये, वहीं नाराज़ भी हुये और बापू ने डाँटा। तुम्हारे माथे पर सिन्दूर नहीं है, चूड़ियाँ क्यों नहीं पहना ? बापू ने कहा - कल से किनारी वाली साड़ी पहनकर आना। सुभद्रा कुमारी चौहान जी बिल्कुल सादी बिना किनारी की धोती पहनती थीं। वे अपने पति के साथ शादी के डेढ़ वर्ष होते ही सत्याग्रह में शामिल हों गयीं और उन्होंने जेल में ही अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष गुजारे। उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। देश के लिये कर्तव्य और समाज की जिम्मेदारी सँभालते हुये उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी।
सन् 1922 में जबलपुर का "झण्डा सत्याग्रह" देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा कुमारी चौहान जी इस सत्याग्रह की पहली सत्याग्रही थीं। प्रतिदिन सभाओं का आयोजन होता और वे सभाओं का नेतृत्व करती उसमें भाषण देती थीं। सन् 1930 में उन्होंने मध्य प्रदेश राज्य काँग्रेस कमेटी के महिला वर्ग की अध्यक्षता की। 1936 में बिहार विधान सभा के लिये चुनी गयीं। 1942 भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उनके पति को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन उन्होंने उन्हें रोका नहीं अपने निजी जीवन और राजनीतिक भागीदारी को देखते हुये उनके जीवन का निरीह क्षण तब आया जब उन्हें अपने सबसे छोटे बीमार बच्चे के साथ जेल ले जाया गया। तमाम कठिनाईयों के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी क्योंकि वह सेन्ट्रल जेल जबलपुर में अपने साथी कैदियों के लाभ के लिए भोजन छोड़कर संघर्ष करती रहीं। अंतत: उनके बिगड़ते स्वास्थ्य की स्थिति के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया। जिसके लिये तत्काल सर्जरी की आवश्यकता थी। उनका साहस उनके बिगड़ते स्वास्थ्य से कम नहीं हुआ। सन् 1946 में वे एक बार फिर बिहार विधान सभा के लिये निर्विरोध चुनी गयीं। वे और उनके पति ने नये भारत में एक शान्तिपूर्ण युग की शुरुआत करने के लिये सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिये अथक प्रयास किये। सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने जेल में अनेक यातनायें सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में व्यक्त किया। वह स्वाधीनता संग्राम सेनानी होने के साथ ही देश की सुप्रसिद्ध रचनाकार थीं। उनकी अनेक रचनाओं में 88 कवितायें 46 लघु कथायें हैं। जिसके लिये इन्हें कई बार सम्मानित किया गया। उनकी रचनायें राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण है। अधिकांश कहानियाँ नारी विमर्श पर आधारित हैं और स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डाली हैं। उनकी कविताओं में वीरांगनाओं के लिये ओज था, करूणा थी, स्मृति और श्रद्धा थी। "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी" इसी कविता से उन्हें प्रसिद्धि मिली थी और वह साहित्य जगत में अमर हो गयीं। उनका दो रूप एक देश सेविका दूसरा देशभक्त कवि का रूप था। जलियाँवाला बाग 1917 के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। उनकी "जलियाँ वाले बाग में बसन्त" कविता "परिमल पराग दाग सा बना पड़ा है, यह बाग खून से सना पड़ा है। आओ प्रिय रितुराज किन्तु धीरे से आना, यह है शोक स्थान यहाँ मत शोर मचाना। कोमल बालक मरे यहाँ हैं गोली खा खाकर, कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी लाकर।। उनके लेखन में समय के प्रतिबिम्ब के रूप में मज़बूत राष्ट्रवादी स्वर शामिल हैं। बचपन में कविता लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर ताउम्र रहा। 15 फरवरी 1948 को नागपुर एक शैक्षिक सम्मेलन से जब वो वापस जबलपुर आ रही थीं, रास्ते में कार एक्सीडेंट में उनका निधन हो गया।
महान राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी सुभद्रा कुमारी चौहान जी के सम्मान में मध्य प्रदेश सरकार ने जबलपुर नगर निगम के प्रांगण में उनकी एक प्रतिमा लगवाई, जिसका अनावरण 27 नवम्बर 1949 को महान कवयित्री और बचपन की सहेली महादेवी वर्मा जी ने किया। भारतीय डाक तार विभाग ने 06 अगस्त 1976 को उनके सम्मान में 25 पैसे का डाक टिकट जारी किया था। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रैल 2006 को सुभद्रा कुमारी चौहान जी के राष्ट्र-प्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नये नियुक्त एक तटरक्षक जहाज को इनका नाम दिया गया है, जो उनके अटूट साहस की याद दिलाता है। सुभद्रा कुमारी चौहान जी अपनी मृत्यु के विषय में कहती थीं कि - "मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है। मैं चाहती हूँ कि मेरी एक समाधि हो। जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे। बच्चे खेलते रहें। स्त्रियाँ गीत गाती रहें और कोलाहल होता रहे। वह एक राष्ट्रवादी कवयित्री ही नहीं एक देशभक्त महिला स्वतन्त्रता सेनानी थीं। उनका लिखा काव्य सिर्फ कागजी नहीं था। जिस जज़्बे को उन्होंने कागज पर उतारा उसे जिया भी। उन्हें "राष्ट्रीय बसन्त की प्रथम कोकिला" की उपाधि दी गयी थी। उन्होंने महिलाओं के बीच स्वदेशी अपनाने व तमाम संकीर्णतायें छोड़ने के लिये उन्हें प्रेरित किया। इनकी पुत्री सुधा चौहान ने अपनी माँ की जीवनी लिखी जिसका नाम है - "मिले तेज से तेज।"

 आइये हम अपनी इस महान देशभक्त देश की प्रथम सत्याग्रही महान रचनाकार को प्रणाम करें! सादर कोटि कोटि नमन! सादर श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय!

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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।

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