!! देश की आजादी के 75 वर्ष !!
"आज़ादी का अमृत महोत्सव" में आज भारत की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाली महान महिला स्वतन्त्रता सेनानी एशिया की पहली महिला कर्नल देश की आज़ादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी की सहयोगी। जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए डॉक्टर कोट निकालकर कैप्टन "कैप" पहन लिया था और देश की आजादी के बाद दोबारा डॉक्टर कोट पहनकर मरीजों की ताउम्र सेवा की। महान क्रान्तिकारी महिला सेनानी महिलाओं की प्रेरणाश्रोत आजाद हिन्द फौज की महिला अधिकारी "कैप्टन लक्ष्मी सहगल।" तारकेश्वर टाईम्स नौ अप्रैल 2022 से आज आठ अगस्त 2022 तक भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद कर जंगे आजादी में संघर्ष करने वाली 75 वीरांगनाओं के जीवन वृत्त से आपको रुबरु करा रहा है। तारकेश्वर टाईम्स ने देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर मनाए जा रहे आजादी का अमृत महोत्सव में महिला सशक्तिकरण की अवधारणा से स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान देने वाली 75 वीरांगनाओं से परिचित करानाा चाहाा था। भारत की आजादी में महिलाओं का योगदान कॉलम में तारकेश्वर टाईम्स अभी तक 74 वीरांगनाओं के जीवन वृतांत प्रकाशित कर चुका है। आज अभियान को पूर्ण होने के अवसर पर श्रृंखला के पचहत्तरवें दिन हम आपको मिलवाते हैं कैप्टन लक्ष्मी सहगल से।
अभियान सूत्रधार एवं प्रस्तुति - शान्ता श्रीवास्तव नौ अगस्त 1842 से भारत छोड़ो आन्दोलन का आगाज हुआ था। इसीलिए श्रृंखला को आज पूर्ण किया जा रहा है। इसलिए अभियान का समापन महान स्वतंत्रता सेनानी केप्टन लक्ष्मी सहगल को सैल्यूट करते हुए किया जा रहा है। आज भारत छोड़ो आन्दोलन की 80वीं वर्षगांठ है। जय हिन्द
75 - कैप्टन लक्ष्मी सहगल एक महान महिला स्वतन्त्रता सेनानी, डॉक्टर, समाजसेविका और सांसद होने के साथ साथ एशिया की पहली महिला कर्नल और स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाली देश की प्रथम महिला थीं। जिन्होंने पेशे से एक डॉक्टर होते हुए ब्रिटिश सरकार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए आज़ाद हिन्द फौज़ में शामिल हो गयीं और डॉक्टर कोट उतारकर कैप्टन कैप पहनकर हथियार उठा लिया था! भारत की पहली महिला रेजिमेंट का नेतृत्व किया था। उनका जन्म मद्रास प्रान्त (अब चेन्नई) के मालाबार में एक परम्परावादी तमिल ब्राम्हण परिवार में 24 अक्टूबर 1914 को हुआ था। उनके पिता का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मु) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील थे और उनकी माता एक महान स्वतन्त्रता सेनानी और समाजसेविका थीं। उनका पूरा नाम "लक्ष्मी स्वामीनाथन" था। विवाह के बाद वह "लक्ष्मी सहगल" हो गयीं। कैप्टन लक्ष्मी बचपन से ही पढाई में कुशल थीं। वे शुरूआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं। उनका कहना था कि यह बात उन्होंने अपनी माँ से विरासत में पायी जो हमेशा दूसरों की मदद किया करती थीं। बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया। उन्होंने उस वक्त का साहसपूर्वक सामना किया।
सन् 1932 में लक्ष्मी सहगल ने क्वीन मैरी कॉलेज से स्नातक (विज्ञान) की परीक्षा पास की। वे बचपन से ही बीमार गरीब लोगों को इलाज के लिए परेशान देखकर दु:खी हो जाती थीं। इसलिए उन्होंने गरीबों की सेवा करने के लिए चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने "स्त्री रोग और प्रसूति" में डिप्लोमा प्राप्त किया और महिला विशेषज्ञ बन गयीं। उन्होंने चेन्नई स्थित सरकारी कस्तूरबा गाँधी अस्पताल में डॉक्टर के रूप में भी कार्य किया। बचपन में समाज में ब्रिटिश शासन की जुल्मी हुक़ूमत को देख उनके मन में स्वतन्त्रता की चिंगारी जलने लगी थी। बचपन से ही वह राष्ट्रवादी आन्दोलन से प्रभावित हो गयी थीं। उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन छेड़ा था, तो लक्ष्मी सहगल ने भी उसमें हिस्सा लिया था। कुछ दिनों बाद उन्हें विदेश जाने का अवसर मिला और 1940 में वह सिंगापुर चली गयीं। जहाँ उन्होंने गरीब भारतीयों और मज़दूरों के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाकर उनका इलाज किया। सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए नि:शुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि "भारत स्वतन्त्रता संघ" की सक्रिय सदस्य भी बनीं। उस समय तत्कालिक सिंगापुर में बहुत सारे क्रान्तिकारी सक्रिय थे जिनमें केशव मेनन, एस.सी. गुहा और एन. राघवन आदि प्रमुख थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब अँग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया था तब घायल युद्धबन्दियों के लिए उन्होंने काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था। विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे ज़ुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। तब उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आज़ादी के लिए कुछ करेंगी। उनके मन में आज़ादी की अलख जग चुकी थी। उसी दौरान देश की आज़ादी की मशाल लिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी का दो जुलाई 1943 को सिंगापुर आगमन हुआ तो डॉ. लक्ष्मी सहगल उनके विचारों से प्रभावित होकर उनसे मुलाकात की और उन्होंने अपनी दृढ इच्छा ज़ाहिर की कि उनके साथ वे भी भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती है। डॉ. लक्ष्मी की बात सुनकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी पहले हिचकिचाए परन्तु डॉ. लक्ष्मी की दृढ इच्छाशक्ति और बुलन्द इरादों को देखकर उन्हें हामी भरनी ही पड़ी। नेताजी के मन में आजाद हिन्द फौज में एक महिला रेजीमेंन्ट बनाने का विचार आया।
डॉ. लक्ष्मी सहगल के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने डॉ. लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में "रानी लक्ष्मीबाई महिला रेजिमेंट" बनाने की घोषणा कर दी जिसमें वह वीर नारियाँ शामिल की गयीं जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थींं। 22 अक्टूबर 1943 को डॉ. लक्ष्मी ने एक डॉक्टर का कोट उतारकर देश की आज़ादी के लिए "रानी झाँसी रेजिमेंट" में "कैप्टन" पद पर कार्यभार सँभाला। अब डॉ. लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर नहीं अब कैप्टन लक्ष्मी के रूप में भी लोगों के बीच जानी जाने लगी थीं। आजाद हिन्द फौज की रानी झाँसी रेजिमेंट की कैप्टन के रूप में वे बहुत सक्रिय रहीं। उन्हें बहुत ही मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर थी। उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुँचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकलना भी ज़ुर्म समझा जाता था उस समय उन्होंने 500 से अधिक महिलाओं की एक फौज़ तैयार की। यह फौज एशिया में अपने तरह की पहली विंग थी। आजाद हिन्द फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट ने कई जगहों पर अँग्रेजों से मोर्चा लिया और बता दिया कि भारत की नारियाँ चूड़ियाँ तो पहनती हैं लेकिन समय आने पर वह बन्दूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरूषों की तुलना में कम नहीं होताा। उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहकर कई सराहनीय कार्य किए। अपनी दृढ इच्छा शक्ति अद्भुत साहस और सराहनीय कार्यों की बदौलत उन्हें "कर्नल" का पद दिया गया जो संभवत: एशिया में किसी महिला को पहली बार यह पद प्रदान किया गया था। उन्हें एशिया की प्रथम "कर्नल" बनने का गौरव प्राप्त हुआ। लेकिन वह लोगों के मन में कप्तान लक्ष्मी के रूप में ही प्रसिद्ध रहीं।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल अस्थाई "आज़ाद हिन्द सरकार" की कैबिनेट में "पहली महिला सदस्य" बनी थीं। वह आज़ाद हिन्द फौज़ की अधिकारी तथा आजाद हिन्द सरकार की महिला मामलों की मंत्री थीं। "बर्मा" को आज़ाद कराने के क्रम में जापानी सेना की हार हो गयी और ब्रिटिश सेना जीत गयी थी। आज़ाद हिन्द सेना की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतन्त्रता सैनिकों की धर पकड़ की और 4 मार्च 1946 को उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गयाा। साल 1946 तक वह बर्मा जेल में रहीं। अंततोगत्वा भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के बढ़ रहे दबाव के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। 1947 देश आज़ाद होने ही वाला था कि लाहौर के कर्नल प्रेम कुमार सहगल से उनके विवाह की बात चली तो उन्होंने हामी भर दी। वर्ष 1947 में उन्होंन कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गयीं। वे कैप्टन लक्ष्मी से कैप्टन लक्ष्मी सहगल हो गयीं। भारत की आज़ादी के बाद भी उनका सफर थमा नहीं। उन्होंने फिर से डॉक्टर का कोट पहना और वंचितों की सेवा में जुट गयीं।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने देश विभाजन के समय भारत में आने वाले शरणार्थियों की सहायता की। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं तथा अमीरों और गरीबों के बीच बढती खाई का हमेशा विरोध करती रही थीं। उनकी दो बेटियाँ सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी हैं। बाद में वे राजनीति में भी आयीं। उन्होंने सन् 1971 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और राज्य सभा की सदस्य बनीं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (ऑल इण्डिया डेमोक्रेटिक्स वुमेन्स एसोसिएशन) की संस्थापक सदस्यों में से थीं। उन्होंने महिलाओंं की सामाजिक व आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए काफी संघर्ष किया था। सन् 1984 भोपाल गैस त्रासदी में उन्होंने राहत कार्यों में अहम भूमिका निभाई। सन् 1984 सिख दंगों के समय कानपुर में शांति स्थापित करने में भी वे सक्रिय रही थीं। स्वतन्त्रता आंदोलन एवम् आज़ादी के बाद उनके संघर्ष और महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए वर्ष 1998 में भारत के महामहिम राष्ट्रपति के.आर. नारायणन जी द्वारा उन्हें "पद्म विभूषण" से सम्मानित किया गया।
वर्ष 2002में अपनी पार्टी के लोगों के दबाव में आकर 88वर्ष की आयु में उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे डॉ0 अब्दुल कलाम जी के खिलाफ़ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव मैदान में भी उतरीं लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था लेकिन उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आयी। एक लम्बे राजनीतिक जीवन जीने के बाद 1997 में वह काफी कमज़ोर होने के बाद भी वे लोगों की भलाई के बारे में सोचती थीं और मरीजों को देखने का प्रयास करती थीं। 92साल की उम्र में भी कानपुर के अस्पताल में उन्होंने मरीजों का इलाज किया था। साल 2010 में कालीकट युनिवर्सिटी द्वारा उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
तेईस जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने से 98वर्ष की उम्र में कानपुर में उनका निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को मेडिकल रिसर्च के लिए दान में दिया गया। उनकी याद में कानपुर में "कैप्टन लक्ष्मी सहगल इंटरनेशनल एयरपोर्ट" बनाया गया। एक लेख के अनुसार कैप्टन लक्ष्मी सहगल अपने घर के बाहर खुद झाड़ू लगाती थीं। पड़ोसियों की गंदगी की भी सफाई वो खुद करती थीं। जो बदलाव वो देश में देखना चाहती थीं उसका उदाहरण वो खुद बनी थीं। उनका सपना देश में साम्यवाद लाना था सभी को समान अधिकार दिलाना था।
वीरता की प्रतीक महिलाओं की प्रेरणाश्रोत महान स्वतन्त्रता सेनानी देश की महान विभूति "कैप्टन लक्ष्मी सहगल" जी को आइए हम याद करें! उन्हें सैल्यूट करें! सादर नमन! भावभीनी श्रद्धान्जलि! जय हिन्द! जय भारत! वन्दे मातरम! भारत माता जी की जय! ➖ ➖ ➖ ➖ ➖
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शान्ता श्रीवास्तव वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ये बार एसोसिएशन धनघटा (संतकबीरनगर) की अध्यक्षा रह चुकी हैं। ये बाढ़ पीड़ितों की मदद एवं जनहित भूख हड़ताल भी कर चुकी हैं। इन्हें "महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण, कन्या शिक्षा, नशामुक्त समाज, कोरोना जागरूकता आदि विभिन्न सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये अनेकों पुरस्कार व "जनपद विशिष्ट जन" से सम्मानित किया जा चुका है।